मैंने इसे फेसबुक पर अपने स्कूल - जिला स्कूल, गया, बिहार - के ग्रुप के लिए लिखा था। पर मैंने सोचा कि इसे इस ब्लॉग में भी शामिल कर लूं। रवींद्र कुमार - जिन्हें हम सब उस समय रविंदर बाबू कहते थे - मेरे शैक्षिक जीवन की विभूतियों में हैं जिनसे मैंने विज्ञान के पहले सबक सीखे।
हमारे समय में रविंदर बाबू विज्ञानं के सबसे अच्छे शिक्षक माने जाते थे. उनके व्यक्तित्व में एक गंभीरता और शालीनता थी. वे ज्यादा बोलते नहीं थे. कक्षा में आने पर पहले करीब ५ मिनट वे बोर्ड पर कक्षा से सम्बंधित चित्र बनाते थे. बहुत सधा हुआ हाथ था. फ्लास्क और बीकर बिलकुल सही आकार के होते थे. वे हिंदी के शब्दों के ऊपर लाइन नहीं लगाते थे. थोड़ा अंग्रेजी जैसा लगता था. उनके हस्ताक्षर भी - अगर किसी को अब भी याद हो तो - बिलकुल अलग थे.
उनका पढ़ाने का तरीका सटीक और सरल होता था. उनसे प्रशंसा पा लेना तो बस नोबेल पुरस्कार ही समझ लीजिये!
शरारती बच्चों को वे बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते थे. और जिन्हें उनके हाथ का चांटा पड़ा हो वे फिर उनके सामने तो गुस्ताखी करने की हिम्मत नहीं करते थे!
उनके विचार और मूल्य बड़े ऊँचे थे. एक बार फुटबॉल के एक मैच में हमलोग हादी हाशमी स्कूल के खिलाफ खेल रहे थे और रेफरी ने काफी गड़बड़ की थी. हमारे एक गोल को उसने नकार दिया तो गुस्सा हो कर हमारी टीम ने मैच खेलने से मना कर दिया. स्कूल टीम का कप्तान हमारी कक्षा से था - विजय गुहा. अगली बार की क्लास में उन्होंने विजय से पूछा कि उसने क्यों खेल का बहिष्कार किया? विजय के बताने पर उन्होंने कहा कि खेल का मैदान केवल जीतने या हारने के लिए नहीं है. यहाँ सब लोग एक जीवन शैली सीखते हैं. अच्छा बुरा सब सह कर खेल को पूरी क्षमता से, पूरे विश्वास से, और पूरी निष्पक्षता से खेलना उतना ही जरूरी है. खेल मैदान के २२ लोगों की बात नहीं है. पूरे स्कूल और पूरे शहर की बात है. हम सब छोटे थे. उनकी बात तो शायद तब समझ नहीं पाए. पर ये सीख शायद कभी भी भुलाए न भूले.
कभी कभी वे एक कठिन प्रश्न देते थे और कहते थे - जो भी इसे कर लेगा उसे एक पेंसिल इनाम. उस पेंसिल को पाना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल जरूर होता था. जिन लोगों को ये पेंसिल कभी मिलती थी तो उनका दर्जा स्कूल में बहुत बढ़ जाता था. एक मेरे हिस्से में भी आई थी. और अब, वहां से निकले हुए ३३ बरस हो गए हैं. पर उस पेन्सिल ने जो आत्मविश्वास दिया उससे जीवन में रास्ते मिलते गए, खुलते गए.
गुरु का दिया तो कभी चुकाया नहीं जा सकता. एक ही तरीका है कि अपने से आगे वाली पीढ़ियों को कुछ सिखा दें, कुछ मदद कर दें. तो इस परम्परा का निर्वाह हो पाएगा. अपने इस गुरु के लिए पूरी श्रद्धा के साथ शतशः नमन.
हमारे समय में रविंदर बाबू विज्ञानं के सबसे अच्छे शिक्षक माने जाते थे. उनके व्यक्तित्व में एक गंभीरता और शालीनता थी. वे ज्यादा बोलते नहीं थे. कक्षा में आने पर पहले करीब ५ मिनट वे बोर्ड पर कक्षा से सम्बंधित चित्र बनाते थे. बहुत सधा हुआ हाथ था. फ्लास्क और बीकर बिलकुल सही आकार के होते थे. वे हिंदी के शब्दों के ऊपर लाइन नहीं लगाते थे. थोड़ा अंग्रेजी जैसा लगता था. उनके हस्ताक्षर भी - अगर किसी को अब भी याद हो तो - बिलकुल अलग थे.
उनका पढ़ाने का तरीका सटीक और सरल होता था. उनसे प्रशंसा पा लेना तो बस नोबेल पुरस्कार ही समझ लीजिये!
शरारती बच्चों को वे बिलकुल बर्दाश्त नहीं करते थे. और जिन्हें उनके हाथ का चांटा पड़ा हो वे फिर उनके सामने तो गुस्ताखी करने की हिम्मत नहीं करते थे!
उनके विचार और मूल्य बड़े ऊँचे थे. एक बार फुटबॉल के एक मैच में हमलोग हादी हाशमी स्कूल के खिलाफ खेल रहे थे और रेफरी ने काफी गड़बड़ की थी. हमारे एक गोल को उसने नकार दिया तो गुस्सा हो कर हमारी टीम ने मैच खेलने से मना कर दिया. स्कूल टीम का कप्तान हमारी कक्षा से था - विजय गुहा. अगली बार की क्लास में उन्होंने विजय से पूछा कि उसने क्यों खेल का बहिष्कार किया? विजय के बताने पर उन्होंने कहा कि खेल का मैदान केवल जीतने या हारने के लिए नहीं है. यहाँ सब लोग एक जीवन शैली सीखते हैं. अच्छा बुरा सब सह कर खेल को पूरी क्षमता से, पूरे विश्वास से, और पूरी निष्पक्षता से खेलना उतना ही जरूरी है. खेल मैदान के २२ लोगों की बात नहीं है. पूरे स्कूल और पूरे शहर की बात है. हम सब छोटे थे. उनकी बात तो शायद तब समझ नहीं पाए. पर ये सीख शायद कभी भी भुलाए न भूले.
कभी कभी वे एक कठिन प्रश्न देते थे और कहते थे - जो भी इसे कर लेगा उसे एक पेंसिल इनाम. उस पेंसिल को पाना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल जरूर होता था. जिन लोगों को ये पेंसिल कभी मिलती थी तो उनका दर्जा स्कूल में बहुत बढ़ जाता था. एक मेरे हिस्से में भी आई थी. और अब, वहां से निकले हुए ३३ बरस हो गए हैं. पर उस पेन्सिल ने जो आत्मविश्वास दिया उससे जीवन में रास्ते मिलते गए, खुलते गए.
गुरु का दिया तो कभी चुकाया नहीं जा सकता. एक ही तरीका है कि अपने से आगे वाली पीढ़ियों को कुछ सिखा दें, कुछ मदद कर दें. तो इस परम्परा का निर्वाह हो पाएगा. अपने इस गुरु के लिए पूरी श्रद्धा के साथ शतशः नमन.
This is inspiring Ranjan.. I know you are truely following what you said here. Guru ka diya kabhi chukaya nahi ja sakta.. You are giving generously to new generation. We are blessed to have people like you around. I will try to follow your words in my life too..
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